परिचय

श्री मुनिसुव्रतनाथ स्वस्तिधाम

राजस्थान नेशनल मार्ग 39 तथा जहाजपुर और जालमपुर के बीच में स्थित है स्वस्तिधाम अतिशय क्षेत्र। भीलवाड़ा से जहाजपुर शहर रेलवे स्टेशन 100 किलोमीटर तथा जयपुर से 180 किलोमीटर दुर है।

स्वस्तिधाम अतिशय क्षेत्र में श्री 1008 मुनिसुव्रतनाथ भगवान जी का जहाज की आकृति में बना विशाल तथा भव्य मंदिर स्थापित है। मंदिर जी के द्वार के बाहर स्थित है विशाल मानस्तंभ। मंदिर जी में प्रवेश करके हमारे सामने आता है सुन्दर विशालकाय हॉल, जिसको चारो ओर से सफेद पत्थरों द्वारा बनाया गया है।

हॉल में 3 वेदिया सहस्त्रकूट बनी हुई है, जिनमें 1008 प्रतिमाओं को विराजमान किया गया है। मंदिर जी के दूसरे तल में 3 वेदिया है, जिनमें से मुख्य वेदी में श्री 1008 मुनिसुव्रतनाथ भगवान जी की आकर्षक तथा चतुर्थकालीन प्रतिमा विराजमान है।

वेदी में आकर्षक स्वर्ण का कार्य किया हुआ है, जो वेदी को और भी आकर्षक बनाता है। मुख्य वेदी के दांई तरफ श्री 1008 आदिनाथ जी की मूल प्रतिमा वाली वेदी स्थापित है। मुख्य वेदी की बाईं तरफ श्री 1008 महावीर भगवान जी की मूल प्रतिमा वाली वेदी स्थापित है।

मंदिर जी के सबसे ऊपर तल पर जैन 24 तीर्थांकरों की 24 वेदिया स्थापित है। 21 जनवरी 2020 से 7 फरवरी 2020 तक आचार्य श्री 108 ज्ञानसागर जी महाराज एवं आर्यिका रत्न 105 श्री स्वस्ति भूषण जी के पावन सानिधय में मंदिर जी में पंचकल्याणक हुआ।

सुविधाएं एवं धर्मशाला

मंदिर जी के साथ में ही 108 कमरों वाली हर प्रकार की सुविधाओं वाली धर्मशाला बनी है। धर्मशाला में 108 कमरे ऐ० सी० व नॉन ऐ० सी० के साथ उपलब्ध है। धर्मशाला में एक साथ 300 यात्रिओं के ठहरने की व्यवस्था बनी हुई है। गर्मपानी के लिए गिजर की व्यवस्था भी उपलब्ध है। धर्मशाला में भोजनालय का प्रबंद भी है, जिसका नाम तुष्टि पुष्टि भोजनशाला है। भोजनशाला में नित्य सात्विक भोजन बनाया जाता है। दूर से आने वाले यात्रिओं के लिए पार्किंग की सुविधा उपलब्ध है। गाड़ी के ड्राइवर के लिए अलग से कमरे बने हुए है।

कथा अतिशय की

सन् 2013 में मंदिर जी से 4 किलोमीटर की दूरी पर क्षेत्र में महावीर जयंती के शुभ अवसर पर एक मुस्लिम समाज के व्यक्ति के घर से श्री 1008 मुनिसुव्रतनाथ भगवान जी की प्रतिमा निकली। क्षेत्र में पहले भी कई बार जैन प्रतिमाएँ प्रकट हुई थी।

इस बार श्री 1008 महावीर भगवान जी के पावन दिन पर भगवान श्री 1008 मुनिसुव्रतनाथ जी की प्रतिमा प्रकट हुई। प्रतिमा को देखकर सभी मोहित हो गए। प्रतिमा देखकर लग रहा था मानो प्रतिमा नीलम से बनी हो। प्रशासन के कर्मचारियों ने सोचा प्रतिमा करोड़ो रूपए की होगी। उन्होंने स्थानीय निवासियों से कहाँ की इस प्रतिमा को सरकार के नियंत्रण में लिया जायेगा। कर्मचारियों ने जेसीबी मँगवाकर प्रतिमा को निकालने का प्रयास किया लेकिन पतली गली होने के कारण जेसीबी नहीं आ सका। जैन समाज के लोगो ने मिलकर प्रतिमा को उठाकर एक ठेले पर रख दिया तथा प्रतिमा को लेकर मंदिर जी के तहखाने में स्थाई रुप से विराजमान कर दिया। वापिस आकर कर्मचारियों ने लोगो से कहा की प्रतिमा को हम लेकर जायेंगे, इसके लिए उन्होंने मजदूरों को बुलाया। लगभग 40 से 45 मजदूरों ने मिलकर जोर लगाया लेकिन प्रतिमा को नहीं हिला सके। 

हारकर वह खाली हाथ लौट गए। पुरे 1.5 महीने तक प्रतीक्षा के बाद सरकार ने प्रतिमा को जैन समाज को देने का निर्णय लिया। बाद में आर्यिका रत्न 105 श्री स्वस्ति भूषण जी की प्रेरणा से मंदिर जी का निर्माण करने का निर्णय लिया गया। धीरे-धीरे मंदिर जी का निर्माण कार्य पूरा होकर प्रतिमा प्रतिष्ठा का समय आया। उस दिन माता जी को आने में कुछ समय लग गया। समय निकलने के कारण जैन समाज के लोगो ने निर्णय लिया की प्रतिमा जी को शीघ्र ही मंदिर जी में विराजमान कर देना चाहिए। 

यह सोचकर वे प्रतिमा जी को लेकर वर्तमान मंदिर जी की ओर चल पड़े, लेकिन जैसे ही वे मंदिर जी के बाहर पहुँचे तो प्रतिमा जी का वजन बढ़ गया, यह देखकर सब आश्चर्यचकित रह गए। सबको लगा की उन्हें माता जी के आने की प्रतीक्षा करनी चाहिए तथा ऐसा ही हुआ जब माता श्री स्वस्ति भूषण जी आई तो प्रतिमा जी का वजन फिर से हल्का हो गया। प्रतिमा जी को मंदिर जी में स्थापित किया गया। अब तक प्रतिमा जी का 4 बार रंग अपने आप बदल चूका है। 

एक बार जब मंदिर जी में आरती हो रही थी, तब अचानक ही प्रतिमा जी की आँख में से रोशनी निकलती हुई दिखाई दी। प्रतिमा जी की नाभि कभी अंदर कभी बाहर होते हुए उपस्थित सभी लोगो ने देखा। आज भी अनेको ऐसे अतिशय मंदिर जी में होते रहते है। दूर-दूर से श्रद्धालु इस मनमोहक प्रतिमा जी के दर्शन करने आते है।